यह शानदार वराह, भारत के अतीत के भव्य अवशेष हैं। आज यह, इस जगह, मैदानों के बीच खड़े हैं। यह जगह यानी मध्यप्रदेश का एरण शहर, जो गुप्त साम्राज्य के दौर में एक बहुत महत्वपूर्ण शहर हुआ करता था। और इससे भी दिलचस्प वरहा की गर्दन पर लिखे गये शिला-लेख हैं। इन शिला-लेखों की एक दिलचस्प कहानी है। बीना नदी से, तीन तरफ़ से घिरा एरण, मध्यप्रदेश के सागर शहर से 80 किलोमीटर दूर है। हालांकि आज यह जगह खंडहर में बदल चुकी है। लेकिन आज से सतरह सौ साल पहले यह जगह एक बेहद ख़ुशहाल स्थल हुआ करती थी और एराकन्या के नाम से जानी जाती थी।यह जगह, प्राचीन युग के एक महत्वपूर्ण व्यापारी मार्ग दक्षिणापथ पर स्थित थी जो विदिशा के ज़रिये पाटलीपुत्र और मथुरा को जोड़ता था। वहां पाये गये सिक्कों से पता लगता है कि एरण में सबसे प्राचीन टकसाल हुआ करता थी. जहां कई राजवंशों के सिक्के ढ़ाले जाते थे, जिनमें उज्जैन,विदिशा और त्रिपुरा राजवंशों शामिल थे।यह कितनी बडी बात है कि यहां,300 ईसा पूर्व से सन 100 तक के तीन हज़ार सिक्के मिले हैं। इस बात पर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि चौथी और छठी शताब्दी के बीच,शासन करनेवाले, सबसे ज़्यादा ताक़तवर,गुप्त राजवंश के ज़माने में यह एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र भी रह चुका था। शहर की दक्षिणी दिशा में चंद मंदिरों के अवशेष मौजूद हैं।जिनमें सबसे ज़्यादा आकर्षण का केंद्र यहां मौजूद वराह है।कहा जाता है कि 11फ़ुट ऊंची यह चमत्कारी आकृति, देश में पायी जाने वाली अपनी तरह की पहली आकृति थी । यहां एक मंदिर में स्थित थी,लेकिन अफ़सोस की अब वह मंदिर वहां मौजूद नहीं है। बल्युआ पत्थर की बनी यह शानदार आकृति अपने आप में एक अजूबा है।यह आकृति भग्वान विष्णु के वराह अवतार का प्रतिनिधित्व करती है जो हिरण्यकश्यप राक्षस से बचाने के लिये पानी में डूबी हुई पृथ्वी को अपने नुकीले दोतों से उठाये हुये है। विराह की आकृति में उसके एक नुकीले दांत पर महिला के रूप में भूदेवी की छवि भी बनी हुई है।
इस मूर्ती को, उसके पूरे शरीर यानी पांव,सिर, तथा सीने पर, साधू-संतों और भगवानों की छोटी छोटी आकृतियां उकेर कर, बेहद सुंदर तरीक़े से सजाया गया है। प्रचिता के कानों पर दिव्य-संगीतकारों की छवियों को उकेरा गया है। तमाम कलाकारी बेहद बारीकी से की गई है, यहां तक कि वराह की ज़बान पर भी सरस्वती देवी कीएक छोटी-सी छवि उकेरी गई है। इस मूर्ती का सबसे दिलचस्प हिस्सा इस पर लिखे शिला-लेख हैं। आमतौर पर इस तरह के शिला-लेख, चट्टानों पर गुफाओं की दीवारों, मंदिरों या खम्बों पर पाये जाते हैं,लेकिन यहां शिला-लेख वराह की गर्दन पर उकेरे गये हैं। आठ पंक्तियों का एक शिला-लेख धन्यविष्णु नाम के व्यक्ति का उकेरा गया है, जिसमें भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर के, निर्माण के बारे में जानकारी दी गई है। लेकिन उस में किसी खास दिन या तारीख़ का हवाला नहीं दिया गया है।इसमें सिर्फ़ इतना लिखा गया है कि यह शिला-लेख, अलचोन हूण राजा तोरामन के शासन के पहले वर्ष में लिखा गया था। बताया जाता है कि तोरामन ने छठी सदी में राज किया था। अब सवाल यह कि हूण कौन थे ? हूण दरअसल मध्य एशिया की एक जन-जाति थी जिसकी उत्पत्ति छठी शताब्दी में हुई थी।तोरामन, का सम्बंध हूण जन-जाति की अलचोन शाखा से था। तोरामन ने छठी सदी में,उत्तरी भारत पर हमला किया था।उस समय गुप्त साम्राज्य कमज़ार पड़ने लगा था। इसी लिये एरण शहर आसानी से हूणों के क़ब्ज़े में आ गया। वराह के शिला-लेख से साबित होता है कि हूणों ने उत्तरी-पश्चिमी इलाक़ों पर हमला किया था और गुप्त राजवंश के की सत्ता को समाप्त कर दिया था। लेकिन हूण, एरण पर बहुत लम्बे समय तक अपना क़ब्जा क़ायम नहीं रख पाये।क्योंकि एरण में तोरामन के शासन के बाद का कोई शिला-लेख नहीं पाया जाता। लेकिन एरण से 400 किलोमीटर दूर मंदसौर शहर में मिले एक शिला-लेख से पता चलता है कि छठी शताब्दी में, तोरामन के बेटे मिहिरकुल को औलिकार राजा यशोवर्धन के हाथों परजय का सामना करना पड़ा था। गुप्त राजवंश के पतन के बाद, एरण का महत्व धीरे धीरे कम होता गया। और वक़्त के साथ, एक फलते फूलते शहर को बिल्कुल भुला दिया गया। बरसों बाद, सन 1874 में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले महानिदेशक अलेक्ज़ैंडर कनिंगघम की देखरेख में एरण में खुदायी करवाई गई जिसमें कई सिक्कों,कई शिला-लेखों और कई मंदिरों खोज हुयी। आज यह प्राचीन स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण( एएसआई) की देखरेख में है और एक ज़माने के ख़ुशहाल शहर की निशानी के तौर पर मौजूद है। एएसआई की तरफ़ से आज भी यहां खुदाई का काम जारी है। अब यह वक़्त ही बतायेगा कि एरण के बारे में अभी और क्या क्या राज़ छुपे हुये हैं जिनके सामने ने का इंतज़ार करना होगा।